Vol.13, Issue 1 & 2
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Vol.13, Issue 1 & 2

Vol 13, Issue 1& 2

SHODH SANCHAYAN

Vol.13, Issue.1 & 2, 15 Jul, 2022

ISSN  2249 – 9180 (Online)

Bilingual (Hindi & English)
Half Yearly

Print & Online

Dedicated to interdisciplinary Research of Humanities & Social Science

An Open Access INTERNATIONALLY INDEXED PEER REVIEWED REFEREED RESEARCH JOURNAL and a complete Periodical dedicated to Humanities & Social Science Research.

मानविकी एवं समाज विज्ञान के मौलिक एवं अंतरानुशासनात्मक शोध पर  केन्द्रित (हिंदी और अंग्रेजी)

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Index/अनुक्रम

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A Study of the Levels of Developed &Developing Countries GDP Growth Rates in Relation to the Global Economic Recovery During COVID-19

पर्यटन के अभाव में कोई व्यक्ति पूर्ण शिक्षित नहीं कहा जा सकता। आधुनिक युग में प्रत्येक शिक्षा प्रणाली में पर्यटन की योजना अनिवार्य रूप से सन्निविष्ट है। विज्ञान पर्यटन से तात्पर्य ऐसे पर्यटन से है जिसमें विज्ञान विषय से सम्बन्धित ऐसी जगहों और ऐसी चीजों को जानने के उद्देश्य से पर्यटन किया जाना है जो किसी के लिए भी सिपर्फ एक रहस्य ही होता है जब हम पर्यटन द्वारा उनका प्रत्यक्ष अनुभव करते है तब हम उन रहस्यों को जान पाते हैं। विज्ञान विषय से सम्बन्ध्ति ऐसी बहुत सी जगह बहुत से पेड़-पौधे, जन्तु आदि है जिनके बारे में केवल हमने पढ़ा व सुना है उनका प्रत्यक्ष अनुभव हम विज्ञान पर्यटन द्वारा कर सकते हैं।

धरती पर मानव का अस्तित्व अब तक के ज्ञात स्त्रोतों से लगभग दस लाख वर्ष पुराना है। अपने लम्बे कालखण्ड में मनुष्य ने क्रमिक विकास के अनेक युग निर्मित किये और युग-दर-युग विकास के नए कीर्तिमान बनाता गया। लगभग दस हजार साल पहले नवपाषाण युग की शुरुआत हुई। यह युग मानव सभ्यता के विकास की आधरशिला के रूप में स्थापित है। सूक्ष्म और सुन्दर पाषाणोपकरण इस युग की विशेषता थी। कृषि की खोज एवं उसका प्रारम्भ तथा गाँवों की स्थापना ने इस युग के मानव को अन्य प्राणियों से अलग बनाया तथापि इस युग में कुछ अंक संकेत अथवा भाव संकेत के अलावा लेखन कला का कोई पुरातात्त्विक प्रमाण प्राप्त नहीं होता।

मानव संस्कृति ने बहुत लंबे समय के उतार-चढ़ावो के बाद आज की अपनी स्थिति को प्राप्त किया। इन अर्थों में भारतीय संस्कृति विश्व में सर्वाध्कि व्यापक और समृद्ध है। विश्व के तमाम भाषा वैज्ञानिक मानते हैं कि यूरोपीय परिवार की समस्त भाषाएं संस्कृत से निकली है। इसी तरह अनेक जातियों की अपनी-अपनी भाषाओं के शब्दों ने भारतीय भाषाओं को समृद्ध किया। आचार्य  द्विवेदी के उपन्यासों का काल समुद्रगुप्त, हहर्षवर्धन या दक्षिण के साथवाहन राजाओं के समय कों अनामदास का पौथामें उपनिषद कालीन है। उन्होंने तुर्कशासन, पृथ्वीराज और जयचंद्र के काल की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक स्थिति का चित्राण किया। उस समय भारत में तमाम संस्कृतियों का मिलन हो रहा था और इस मिलन से उस समय की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का निर्माण हो रहा था। द्विवेदी जी के उपन्यासों में बौद्ध, वैष्णव, शाक्त और जैन आदि धर्मों में प्रचलित सांस्कृतिक, परंपराओं, उत्सवों आदि की शब्दावली का समृद्ध रूप देखने को मिलता है।

प्रस्तुत आलेख दलित कहानी पर आधरित है जिसमें उसके विविध् पक्षों का विवेचन-विश्लेषण कर उसके सामासिक सांस्कृतिक सौन्दर्य बोध् पर विचार किया गया है। इस क्रम में यह देखा जा सकता है कि दलित कहानियां समाज में मानवीय जीवन के सौन्दर्य बोध् को उत्पन्न कर रही हैं और उसे चेतना से सुसज्जित कर दलित समाज को मुक्ति के लिए तैयार करती हैं।

नाथ साहित्य अपनी मौलिक क्षमता के कारण महत्वपूर्ण है। गोरखनाथ के साथ नाथ साहित्य के विकास में विकास मे प्र्रायः सभी कवियों ने अपनी रचनाओं में गोरखनाथ प्रवृत्त भावों का अंकुरण किया है, इनकी रहस्यपरक अनुभूतियों में तत्कालीन जनजीवन की सहज छाप मिलती हैं। साहित्य का प्र्रभाव नाथ-साहित्य सन्त सम्प्रदाय आदि की धर्मिक रचनाओं पर पड़ा इस दृष्टि से साहित्येतिहास की यह अत्यन्त महत्वपूर्ण कड़ी है। नाथ सम्प्रदाय के उदयकाल एवं विकासशील सीमा के निर्धारण में हिन्दी के विद्वान एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि नाथ मत का विकास किसी पूर्ववर्ती सम्प्रदाय से न होकर स्वतंत्रारुप से हुआ है। लेकिन यह बात किसी ठोस आधर पर आधरित नहीं है। क्योकि संकटपूर्ण हो जाता है जब उसमें मौलिकता नही रहती है। नाथ मत के साथ कोई ऐसी बात घटित नही हुई है। उसने अपनी पूर्ववर्ती परम्परा को परिष्कृत-परिमार्जित कर नवीन मूल्य प्रदान किया।

उषा प्रियंवदा नई कहानी आन्दोलन के उस दौर की रचनाकारों में से हैं जिन्होंने मध्यवर्गीय स्त्री जीवन में आने वाली रूढ़िवादी मान्यताओं के साथ-साथ समाज में स्त्री-पुरुष के बनते-बिगड़ते संबंधों और स्त्री के अंतर्द्वंद्वों को बहुत ही सहज और धैर्य के साथ अपनी कहानियों में परत-दर-परत खोलने का काम किया है। उषा प्रियंवदा स्त्री अंर्तमन में प्रवेश कर उसके रहस्य लोक को उजागर करने वाली कहानीकार हैं। इनकी कहानियों के स्त्री पात्र परम्परा से विद्रोह तो करती हैं लेकिन परम्परा में निहित अच्छाईयों का वरण भी करती है। आधुनिकता-परम्परा से वाद-संवाद करती हुई आधुनिक जीवन पद्धति को स्वीकार कर सामाजिक समस्याओं-ऊब, घुटन, अकेलापन जैसी आधुनिक बीमारियों के साथ, प्रेम-विवाह, विवाहेतर सम्बन्ध्, बेमेल-वैवाहिक सम्बन्ध् जैसे अनेक सामाजिक परिवर्तन की स्थिति पर विचार करती हैं।

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